Sai Satcharitra - Chapter 22 |
*श्री
साई सच्चरित्र - अध्याय 22*
सर्प-विष से
रक्षा - श्री. बालासाहेब
मिरीकर, श्री. बापूसाहेब
बूटी, श्री. अमीर
शक्कर, श्री. हेमाडपंत,बाबा की
सर्प मारने पर
सलाह
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
प्रस्तावना
------------
श्री साईबाबा
का ध्यान
कैसे किया
जाय ।
उस सर्वशक्तिमान् की प्रकृति अगाध
है, जिसका
वर्णन करने
में वेद
और सहस्त्रमुखी शेषनाग भी अपने
को असमर्थ
पाते है
। भक्तों
की स्वरुप
वर्णन से
रुचि नहीं
। उनकी
तो दृढ़
धारणा है
कि आनन्द
की प्राप्ति केवल उनके श्रीचरणों से ही संभव
है ।
उनके चरणकमलों के ध्यान के
अतिरिक्त उन्हें
अपने जीवन
के सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति का अन्य मार्ग
विदित ही
नहीं ।
हेमाडपंत भक्ति
और ध्यान
का जो
एक अति
सरल मार्ग
सुझाते है,
वह यह
है –
कृष्ण पक्ष
के आरम्भ
होने पर
चन्द्र-कलाएँ
दिन प्रतिदिन घटती चलती है
तथा उनका
प्रकाण भी
क्रमशः क्षीण
होता जाता
है और
अन्त में
अमावस्या के
दिन चन्द्रमा के पूर्ण विलीन
रहने पर
चारों ओर
निशा का
भयंकर अँधेरा
छा जाता
है, परन्तु
जब शुक्ल
पक्ष का
प्रारंभ होता
है तो
लोग चन्द्र-दर्शन के
लिए अति
उत्सुक हो
जाते है
। इसके
बाद द्घितीया को जब चन्द्र
अधिक स्पष्ट
गोचर नहीं
होता, तब
लोगों को
वृक्ष की
दो शाखाओं
के बीच
से चन्द्रदर्शन के लिये कहा
जाता है
और जब
इन शाखाओं
के बीच
उत्सुकता और
ध्यानपूर्वक देखने का
प्रयत्न किया
जाता है
तो दूर
क्षितिज पर
छोटी-सी
चन्द्र रेखा
के दृष्टिगोचर होते ही मन
अति प्रफुल्लि हो जाता है
। इसी
सिद्घांत का
अनुमोदन करते
हुए हमें
बाबा के
श्री दर्शन
का भी
प्रयत्न करना
चाहिये ।
बाबा के
चित्र की
ओर देखो
। अहा,
कितना सुन्दर
है ।
वे पैर
मोड़ कर
बैठे है
और दाहिना
पैर बायें
घुटने पर
रखा गया
है ।
बांये हाथ
की अँगुलियाँ दाहिने चरण पर
फैली हुई
है ।
दाहिने पैर
के अँगूठे
पर तर्जनी
और मध्यमा
अँगुलियाँ फैली
हुई है
। इस
आकृति से
बाबा समझा
रहे है
कि यदि
तुम्हें मेरे
आध्यात्मिक दर्शन
करने की
इच्छा हो
तो अभिमानशून्य और विनम्र होकर
उक्त दो
अँगुलियों के
बीच से
मेरे चरण
के अँगूठे
का ध्यान
करो ।
तब कहीं
तुम उस
सत्य स्वरुप
का दर्शन
करने में
सफल हो
सकोगे ।
भक्ति प्राप्त
करने का
यह सब
से सुगम
पंथ है
।
अब एक
क्षण श्री
साईबाबा की
जीवनी का
भी अवलोकन
करें ।
साईबाबा के
निवास से
ही शिरडी
तीर्थस्थल बन
गया है
। चारों
ओर के
लोगोंकी वहाँ
भीड़ प्रतिदिन बढ़ने लगी है
तथा धनी
और निर्धन
सभी को
किसी न
किसी रुप
में लाभ
पहुँच रहा
है ।
बाबा के
असीम प्रेम,
उनके अदभुत
ज्ञानभंडार और
सर्वव्यापकता का वर्णन
करने की
सामर्थ्य किसे
है ।
धन्य तो
वही है,
जिसे कुछ
अनुभव हो
चुका है
। कभी-कभी वे
ब्रहा में
निमग्नरहने के
कारण दीर्घ
मौन धारण
कर लिया
करते थे
। कभी-कभी वे
चैतन्यघन और
आनन्द मूर्ति
बन भक्तों
से घरे
हुए रहते
थे ।
कभी दृष्टान्त देते तो कभी
हास्य-विनोद
किया करते
थे ।
कभी सरल
चित्त रहते
तो कभी
कुदृ भी
हो जाया
करते थे
। कभी
संझिप्त और
कभी घंटो
प्रवचन किया
करते थे
। लोगों
की आवश्यकतानुसार ही भिन्न-भिन्न
प्रकारा के
उपदेश देते
थे ।
उनका जीवनी
और अगाध
ज्ञान वाचा
से परे
थे ।
उनके मुखमंडल
के अवलोकन,
वार्तालाप करने
और लीलाएँ
सुनने की
इच्छाएँ सदा
अतृप्त ही
बनी रही
। फिर
भी हम
फूले न
समाते थे
। जलवृष्टि के कणों की
गणना की
जा सकती
है, वायु
को भी
चर्मकी थैल
में संचित
किया जा
सकता है,
परन्तु बाबा
की लीलाओं
का कोई
भी अंत
न पा
सका ।
अब उन
लीलाओं में
से एक
लीला का
यहाँ भी
दर्शन करें
। भक्तों
के संकटों
के घटित
होने के
पूर्व ही
बाबा उपयुक्त
अवसर पर
किस प्रकार
उनकी रक्षा
किया करते
थे ।
श्री. बालासाहेब मिरीकर, जो सरदार
काकासाहेब के
सुपुत्र तथा
कोपरगाँव के
मामलतदार थे,
एक बार
दौरे पर
चितली जा
रहे थे
। तभी
मार्ग में,
वे साईबाबा
के दर्शनार्थ शिरडी पधारे ।
उन्होंने मसजिद
में जाकर
बाबा की
चरण-वन्दना
की और
सदैव की
भाँति स्वास्थ्य तथा अन्य विषयों
पर चर्चा
की ।
बाबा ने
उन्हें चेतावनी
देकर कहा
कि क्या
तुम अपनी
द्घारकामाई को
जानते हो
। श्री.
बालासाहेब इसका
कुछ अर्थ
न समझ
सके, इसीलिए
वे चुप
ही रहे
। बाबा
ने उनसे
पुनः कहा
कि जहाँ
तुम बैठे
हो, वही
द्घारकामाई है
। जो
उसकी गोद
में बैठता
है, वह
अपने बच्चों
के समस्त
दुःखों और
कठिनाइयों को
दूर कर
देती है
। यह
मसजिद माई
परम दयालु
है ।
सरल हृदय
भक्तों की
तो वह
माँ है
और संकटों
में उनकी
रक्षा अवश्य
करेगी ।
जो उसकी
गोद में
एक बार
बैठता है,
उसके समस्त
कष्ट दूर
हो जाते
है ।
जो उसकी
छत्रछाया में
विश्राम करता
है, उसे
आनन्द और
सुख की
प्राप्ति होती
है ।
तदुपरांत बाबा
ने उन्हें
उदी देकर
अपना वरद
हस्त उनके
मस्तक पर
रख आर्शीवाद दिया ।
जब श्री.
बालासाहेब जाने
के लिये
उठ खड़े
हुए तो
बाबा बोले
कि क्या
तुम ल्मबे
बाबा (अर्थात्
सर्प) से
परिचित हो
। और
अपनी बाई
मुट्ठी बन्द
कर उसे
दाहिने हाथ
की कुहनी
के पास
ले जाकर
दाहिने हाथ
को साँप
के सदृश
हिलाकर बोले
कि वह
अति भयंकर
है, परन्तु
द्घारकामाई के
लालों का
वह कर
ही क्या
सकता है
। जब
स्वंय ही
द्घारकामाई उनकी
रक्षा करने
वाली है
तो सर्प
की सामर्थ्य ही क्या है
। वहाँ
उपस्थित लोग
इसका अर्थ
तथा मिरीकर
को इस
प्रकार चोतावनी
देने का
कारण जानना
चाहते थे,
परन्तु पूछने
का साहस
किसी में
भी न
होता था
। बाबा
ने शामा
को बुलाया
और बालासाहेब के साथ जाकर
चितली यात्रा
का आनन्द
लेने की
आज्ञा दी
। तब
शामा ने
जाकर बाबा
का आदेश
बालासाहेब को
सुनाया ।
वे बोले
कि मार्ग
में असुविधायें बहुत है, अतः
आपको व्यर्थ
ही कष्ट
उठाना उचित
नहीं है
। बालासाहेब ने जो कुछ
कहा, वह
शामा ने
बाबा को
बताया ।
बाबा बोले
कि अच्छा
ठीक है,
न जाओ
। सदैव
उचित अर्थ
ग्रहणकर श्रेष्ठ
कार्य ही
करना चाहिये
। जो
कुछ होने
वाला है,
सो तो
होकर ही
रहेगा ।
बालासाहेब ने
पुनः विचार
कर शामा
को अपने
साथ चलने
के लिये
कहा ।
तब शामा
पुनः बाबाकी
आज्ञा प्राप्त
कर बालासाहेब के साथ ताँगे
में रवाना
हो गये
। वे
नौ बजे
चितली पहुँचे
और मारुति
मंदिर में
जाकर ठहरे
। आफिस
के कर्मचारीगण अभी नहीं आये
थे, इस
कारण वे
यहाँ-वहाँ
की चर्चायें करने लगे ।
बालासाहेब दैनिक
पत्र पढ़ते
हुए चटाई
पर शांतिपूर्वक बैठे थे ।
उनकी धोती
का ऊपरी
सिरा कमर
पर पड़ा
हुआ था
और उसी
के एक
भाग पर
एक सर्प
बैठा हुआ
था ।
किसी का
भी ध्यान
उधर न
था ।
वह सी-सी करता
हुआ आगे
रेंगने लगा
। यह
आवाज सुनकर
चपरासी दौड़ा
और लालटेन
ले आया
। सर्प
को देखकर
वह साँप
साँप कहकर
उच्च स्वर
में चिल्लाने लगा । तब
बालासाहेब अति
भयभीत होकर
काँपने लगे
। शामा
को भी
आश्चर्य हुआ
। तब
वे तथा
अन्य व्यक्ति
वहाँ से
धीरे से
हटे और
अपने हाथ
में लाठियाँ
ले ली
। सर्प
धीरे-धीरे
कमर से
नीचे उतर
आया ।
तब लोगों
ने उसका
तत्काल ही
प्राणांत कर
दिया ।
जिस संकट
की बाबा
ने भविष्यवाणी की थी, वह
टल गया
और साई-चरणों में
बालासाहेब का
प्रेम दृढ़
हो गया
।
बापूसाहेब बूटी
-----------------
एक दिन
महान् ज्योतिषी श्री. नानासाहेब डेंगलें
ने बापूसाहेब बूटी से (जो
उस समय
शिरडी में
ही थे)
कहा आज
का दिन
तुम्हारे लिये
अत्यन्त अशुभ
है और
तुम्हारे जीवन
को भयप्रद
है ।
यह सुनकर
बापूसाहेब बडे
अधीर हो
गये ।
जब सदैव
की भाँति
वे बाबा
के दर्शन
करने गये
तो वे
बोले कि
ये नाना
क्या कहते
है ।
वे तुम्हारी मृत्यु की भविष्यवाणी कर रहे है,
परन्तु तुम्हें
भयभीत होने
की किंचित्
मात्र भी
आवश्यकता नहीं
है ।
इनसे दृढ़तापूर्वक कह दो कि
अच्छा देखे,
काल मेरा
किस भाँति
अपहरण करता
है ।
जब संध्यासमय बापू अपने शौच-गृह में
गये तो
वहाँ उन्हें
एक सर्पत
दिखाई दिया
। उनके
नौकर ने
भी सर्प
को देख
लिया और
उसे मारने
को एक
पत्थर उठाया
। बापूसाहेब ने एक लम्बी
लकड़ी मँगवाई,
परन्तु लकड़ी
आने से
पूर्व ही
वह साँप
दूरी पर
रेंगता हुआ
दिखाई दिया
। और
तुरन्त ही
दृष्टि से
ओझल हो
गया ।
बापूसाहेब को
बाबा के
अभयपूर्ण वचनों
का स्मरण
हुआ और
बड़ा ही
हर्ष हुआ
।
अमीर शक्कर
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अमीर शक्कर
कोरले गाँव
का निवासी
था, जो
कोपरगाँव तालुके
में है
। वह
जाति का
कसाई था
और बान्द्रा में दलाली का
धंधा किया
करता था
। वह
प्रसिदृ व्यक्तियों में से एक
था ।
एक बार
वह गठिया
रोग से
अधिक कष्ट
पा रहा
था ।
जब उसे
खुदा की
स्मृति आई,
तब काम-धंधा छोड़कर
वह शिरडी
आया और
बाबा से
रोग-निवृत्ति की प्रार्थना करने
लगा ।
तब बाबा
ने उसे
चावड़ी में
रहने की
आज्ञा दे
दी ।
चावड़ी उस
समय एक
अस्वास्थ्यकारक स्थान होने
के कारण
इस प्रकार
के रोगियों
के लिये
सर्वथा ही
अयोग्य था
। गाँव
का अन्य
कोई भी
स्थान उसके
लिये उत्तम
होता, परन्तु
बाबा के
शब्द तो
निर्णयात्मक तथा मुख्य
औषधिस्वरुप थे
। बाबा
ने उसे
मसजिद में
न आने
दिया और
चावड़ी में
ही रहने
की आज्ञा
दी ।
वहाँ उसे
बहुत लाभ
हुआ ।
बाबा प्रातः
और सायंकाल
चावड़ी पर
से निकलते
थे तथा
एक दिन
के अंतर
से जुलूस
के साथ
वहाँ आते
और वहीं
विश्राम किया
करते थे
। इसलिये
अमीर को
बाबा का
सानिध्य सरलतापूर्वक प्राप्त हो जाया
करता था
। अमीर
वहाँ पूरे
नौ मास
रहा ।
जब किसी
अन्य कारणवश
उसका मन
उस स्थान
से ऊब
गया, तब
एक रात्रि
में वह
चोरीसे उस
स्थान को
छोड़कर कोपरगाँव की धर्मशाला में
जा ठहरा
। वहाँ
पहुँचकर उसने
वहाँ एक
फकीर को
मरते हुए
देखा, जो
पानी माँग
रहा था
। अमीर
ने उसे
पानी दिया,
जिसे पीते
ही उसका
देहांत हो
गया ।
अब अमीर
किंक्रतव्य-विमूढ़
हो गया
। उसे
विचार आया
कि अधिकारियों को इसकी सूचना
दे दूँ
तो मैं
ही मृत्यु
के लिये
उत्तरदायी ठहराया
जाऊँगा और
प्रथम सूचना
पहुँचाने के
नाते कि
मुझे अवश्य
इस विषय
की अधिक
जानकारी होगी,
सबसे प्रथम
मैं ही
पकड़ा जाऊँगा
। तब
विना आज्ञा
शिरडी छोड़ने
की उतावली
पर उसे
बड़ा पश्चाताप हुआ । उसने
बाबा से
मन ही
मन प्रार्थना की और शिरडी
लौटने का
निश्चय कर
उसी रात्रि
बाबा का
नाम लेते
हुए पौ
फटने से
पूर्व ही
शिरडी वापस
पहुँचकर चिंतामुक्त हो गया ।
फिर वह
चावड़ी में
बाबा की
इच्छा और
आज्ञानुसार ही
रहने लगा
और शीघ्र
ही रोगमुक्त हो गया ।
एक समय
ऐसा हुआ
कि अर्दृ
रात्रि को
बाबा ने
जोर से
पुकारा कि
ओ अब्दुल
कोई दुष्ट
प्राणीमेरे बिस्तर
पर चढ़
रहा है
। अब्दुल
ने लालटेन
लेक बाबा
का बिस्तर
देखा, परन्तु
वहाँ कुछ
भी न
दिखा ।
बाबा ने
ध्यानपूर्वक सारे स्थान
का निरीक्षण करने को कहा
और वे
अपना सटका
भी जमीन
पर पटकने
लगे ।
बाबा की
यह लीला
देखकर अमीर
ने सोचा
कि हो
सकता है
कि बाबा
को किसी
साँप के
आने की
शंका हुई
हो ।
दीर्घ काल
तक बाबा
की संगति
में रहने
के कारण
अमीर को
उनके शब्दों
और कार्यों
का अर्थ
समझ में
आ गया
था ।
बाबा ने
अपने बिस्तर
के पास
कुछ रेंगता
हुआ देखा,
तब उन्होंने अब्दुल से बत्ती
मँगवाई और
एक साँप
को कुंडली
मारे हुये
वहाँ बैठे
देखा, जो
अपना फन
हिला रहा
था ।
फिर वह
साँप तुरन्त
ही मार
डाला गया
। इस
प्रकार बाबा
ने सामयिक
सूचना देकर
अमीर के
प्राणों की
रक्षा की
।
हेमाडपंत (बिच्छू और साँप)
---------------------------------
बाबा की
आज्ञानुसार काकासाहेब दीक्षित श्रीएकनाथ महाराज
के दो
ग्रन्थों भागवत
और भावार्थरामायण का नित्य पारायण
किया करते
थे ।
एक समय
जब रामायण
का पाठ
हो रहा
था, तब
श्री हेमाडपंत भी श्रोताओं में
सम्मिलित थे
। अपनी
माँ के
आदेशानुसार किस
प्रकार हनुमान
ने श्री
राम की
महानताकी परीक्षा
ली – यह
प्रसंग चल
रहा था,
सब श्रोता-जन मंत्रमुग्ध हो रहे थे
तथा हेमाडपंत की भी वही
स्थिति थी
। पता
नहीं कहाँ
से एक
बड़ा बिच्छू
उनके ऊपर
आ गिरा
और उनके
दाहिने कंधे
पर बैठ
गया, जिसका
उन्हें कोई
भान तक
न हुआ
। ईश्वर
को श्रोताओं की रक्षा स्वयं
करनी पड़ती
है ।
अचानक ही
उनकी दृष्टि
कंधे पर
पड़ गई
। उन्होंने उस बिच्छू को
देख लिया
। वह
मृतप्राय.-सा
प्रतीत हो
रहा था,
मानो वह
भी कथा
के आनन्द
में तल्लीन
हो ।
हरि-इच्छा
जान कर
उन्होंने श्रोताओं में बिना विघ्न
डाले उसे
अपनी धोती
के दोनों
सिरे मिलाकर
उसमें लपेट
लिया और
दूर ले
जाकर बगीचे
में छोड़
दिया ।
एक अन्य
अवसर पर
संध्या समय
काकासाहेब वाड़े
के ऊपरी
खंड में
बैठे हुये
थे, तभी
एक साँप
खिड़की की
चौखट के
एक छिद्र
में से
भीतर घुस
आया और
कुंडली मारकर
बैठ गया
। बत्ती
लाने पर
पहले तो
वह थोड़ा
चमका, फिर
वहीं चुपचार
बैठा रहा
और अपना
फन हिलाने
लगा ।
बहुत-से
लोग छड़ी
और डंडा
लेकर वहाँ
दौड़े ।
परन्तु वह
एक ऐसे
सुरक्षित स्थान
पर बैठा
था, जहाँ
उस पर
किसी के
प्रहार का
कोई भी
असर न
पड़ता था
। लोगों
का शोर
सुनकर वह
शीघ्र ही
उसी छिद्र
में से
अदृश्य हो
गया, तब
कहीं सब
लोगों की
जान में
जान आई
।
बाबा के विचार
-----------------
एक भक्त
मुक्ताराम कहने
लगा कि
चलो, अच्छा
ही हुआ,
जो एक
जीव बेचारा
बच गया
। श्री.
हेमाडपंत ने
उसकी अवहेलना
कर कहा
कि साँप
को मारना
ही उचित
है ।
इस कारण
इस विषय
पर वादविवाद होने लगा ।
एक का
मत था
कि साँप
तथा उसके
सदृश जन्तुओं
को मार
डालना ही
उचित है,
किन्तु दूसरे
का इसके
विपरीत मत
था ।
रात्रि अधिक
हो जाने
के कारण
किसी निष्कर्ष पर पहुँचे बिना
ही ही
उन्हें विवाद
स्थगित करना
पड़ा ।
दूसरे दिन
यह प्रश्न
बाबा के
समक्ष लाया
गया ।
तब बाबा
निर्णयात्मक वचन बोले
कि सब
जीवों में
और सम्स्त
प्राणियों में
ईश्वर का
निवास है,
चाहे वह
साँप हो
या बिच्छू
। वे
ही इस
विश्व के
नियंत्रणकर्ता है और
सब प्राणी
साँप, बिच्छू
इत्यादि उनकी
आज्ञा का
ही पालन
किया करते
है ।
उनकी इच्छा
के बिना
कोई भी
दूसरों को
नहीं पहुँचा
सकता ।
समस्त विश्व
उनके अधीन
है तथा
स्वतंत्र कोई
भी नहीं
है ।
इसलिये हमें
सब प्राणियों से दया और
स्नेह करना
चाहिए ।
संघर्ष एवं
बैमनस्य या
संहार करना
छोड़कर शान्त
चित्त से
जरीवन व्यतीत
करना चाहिए
। ईश्वर
सबका ही
रक्षक है
।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
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