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इक रात लिए मैं...अपने सपनो को
यूँ निकल पड़ा फिर...लेकर अपनों को
वो ख्वाब ही थे जो...मेरे थे अपने
कुछ नए पुराने...जाने अनजाने
वह दूर गगन में...जगमग थे तारे
चंदा के संग संग...वो गीत थे गारे
हर तरफ था जैसे…फैला उजियारा
चांदी सा आलौकिक…आलम दुधियारा
वो गीत जो था बस...लगता था अपना
मेरे ख्वाबो का...कह रहा फ़साना
वो झर-झर बहता...पानी का दरिया
थे उस पर बसाये...कुछ पंछी डेरा
पंछी वह क्या थे...मेरे सपने थे
जो ढूंढे दरिया में...कुछ सीप-मोती थे
वह सपना मेरा...किस सीप में खोया
ढूँढू मैं उसको...जागा और सोया
वो शाख़ दरख़्त की...कुछ झुकी झुकी सी
बस सुना रही थी...उन फलो को लोरी
फ़ल वह क्या थे...मेरे सपने थे
पकने की थी आस...और सिमट रहे थे
मेरा वो सपना…कुछ पनप रहा था
ख्याली शाख़ों पे…वो झूल रहा था
वो पर्वत पे जब...छायी घोर घटाएं
काले थे बादल...सन सनन हवाएं
बादल वो क्या थे...मेरे सपने थे
सावन की चाह में...वह भटक रहे थे
फिर एक हवा का...जब झोंका आया
डाली अठखेली...बादल को रिझाया
मदमस्त हुआ वो...और जम के बरसा
तृप्त हुआ ये...जो बरसो तरसा
वो सावन क्या था...मेरे सपने थे
बरसो से प्यासे...जो भटक रहे थे
कब आएगा वो...इक हवा का झोंका
पागल मतवाला...किसने है रोका
ये सपने भी है...
कुछ अजब निराले
नाज़ो से हमने…है इनको पाले
मासूमियत है…इक बच्चे जैसी
पर दूर हकीकत…है इनसे ऐसी
यथार्थ समय में…जब इनको तोला
हुआ क्षीण मर्म…हर सपना बोला
चला बिख़र के…छोड़ा इक एहसास
आँखों में अश्रु…
होंठो पे इक प्यास
चलता हूँ मैं तो…मुझको है चलना
है जीवन क्या बस…सपनो को बुनना
फिर आस उठी इक…और छाई ख़ुमारी
पलकों की कैद से...निकली इक क्यारी
था गर्भ में जिसके…ख्याल वो अजन्मा
फिर नया वह जोश…फिर नया वह सपना
हूँ अनजान मैं न…इसके अंजाम से
फिर भी चलता हूँ…लिए इसे शान से
है मन में भरोसा…है दिल को यकीं
उस खुदा की नेमत…न कभी रुकीं
आएगा इक दिन…जब होगा सवेरा
सपनो की हक़ीक़त…ख्वाबो का डेरा
तब तक चलता हूँ...लिए सपनो को
यूँ निकल पड़ा फिर...लेकर अपनों को
वो ख्वाब ही है जो...मेरे है अपने
कुछ नए पुराने...जाने अनजाने
~Shubh Life . . . Om Sai Ram
© 2015 Manish Purohit (Reserved)
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