Sai Satcharitra - Chapter 50 |
*श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 50*
काकासाहेब
दीक्षित,
श्री.
टेंबे
स्वामी
और
बालाराम
धुरन्धर
की
कथाएँ
।
---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
मूल
सच्चिरत्र
के
अध्याय
39 और
50 को
हमने
एक
साथ
सम्मिलित
कर
लिखा
है,
क्योंकि
इन
दोनों
अध्यायों
का
विषय
प्रायः
एक-सा ही है ।
प्रस्तावना
-----------
उन
श्री
साई
महाराज
की
जय
हो,
जो
भक्तो
के
जीवनाधार
एवं
सदगुरु
है
।
वे
गीताधर्म
का
उपदेश
देकर
हमें
शक्ति
प्रदान
कर
रहे
है
।
हे
साई,
कृपादृष्टि
से
देखकर
हमें
आशीष
दो
।
जैसे
मलयगिरि
में
होनेवाला
चन्दनवृक्ष
समस्त
तापों
का
हरण
कर
लेता
है
अथवा
जिस
प्रकार
बादल
जलवृष्टि
कर
लोगों
को
शीतलता
और
आनन्द
पहुँचाते
है
या
जैसे
वसन्त
में
खिले
फूल
ईश्वरपूजन
के
काम
आते
है,
इसी
प्रकार
श्री
साईबाबा
की
कथाएँ
पाठकों
तथा
श्रोताओं
को
धैर्य
एवं
सान्त्वना
देती
है
।
जो
कथा
कहते
या
श्रवण
करते
है,
वे
दोनों
ही
धन्य
है,
क्योंकि
उनके
कहने
से
मुख
तथा
श्रवण
से
कान
पवित्र
हो
जाते
है
।
यह
तो
सर्वमान्य
है
कि
चाहे
हम
सैकड़ों
प्रकार
की
साधनाएँ
क्यों
न
करे,
जब
तक
सदगुरु
की
कृपा
नहीं
होती,
तब
तक
हमें अपने
आध्यात्मिक
ध्येय
की
प्राप्ति
नहीं
हो
सकती
।
इसी
विषय
में
यह
निम्नलिखित
कथा
सुनिये:-
काकासाहेब दीक्षित (1864-1926)
-----------------------------------------
श्री
हरि
सीताराम
उपनाम
काकासाहेब
दीक्षित
सन्
1864 में
वड़नगर
के
नागर
ब्राहमण
कुल
में
खणडवा
में
पैदा
हुए
थे
।
उनकी
प्राथमिक
शिक्षा
खण्डवा
और
हिंगणघाट
में
हुई
।
माध्यमिक
सिक्षा
नागुर
में
उच्च
श्रेणी
में
प्राप्त
कने
के
बाद
उन्होंने
पहले
विल्सन
तथा
बाद
में
एलफिन्स्टन
काँलेज
में
अध्ययन
किया
।
सन्
1883 में
उन्होंने
ग्रेज्युएट
की
डिग्री
लेकर
कानूनी
(L. L. B.) और कानूनी सलाहकार (Solicitor) की परीक्षाएँ पास की और फिर वे सरकारी सालिसिटर फर्म-मेसर्स लिटिल एण्ड कम्पनी में कार्य करने लगे । इसके पश्चात उन्होंने स्वतः की एक साँलिसिटर फर्म चालू कर दी ।
सन्
1909 के
पहले
तो
बाबा
की
कीर्ति
उनके
कानों
तक
नहीं
पहुँची
थी,
परन्तु
इसके
पश्चात्
वे
शीघ्र
ही
बाबा
के
परम
भक्त
बन
गये
।
जब
वे
लोनावला
में
निवास
कर
रहे
थे
तो
उनकी
अचानक
भेंट
अपने
पुराने
मित्र
नानासाहेब
चाँदोरकर
से
हुई
।
दोनों
ही
इधर-उधर की चर्चाओं में समय बिताते थे । काकासाहेब ने उन्हें बताया कि जब वे लन्दन में थे तो रेलगाड़ी पर चढ़ते समय कैसे उनका पैर फिसला तथा कैसे उसमें चोट आई, इसका पूर्ण विवरण सुनाया । काकासाहेब ने आगे कहा कि मैंने सैकड़ो उपचार किये, परन्तु कोई लाभ न हुआ । नानासाहेब ने उनसे कहा कि यदि तुम इस लँगड़ेपन तथा कष्ट से मुक्त होना चाहते हो तो मेरे सदगुरु श्री साईबाबा की शरण में जाओ । उन्होंने बाबा का पूरा पता बताकर उनके कथन को दोहराया कि मैं अपने भक्त को सात समुद्रों के पास से भी उसी प्रकार खींच लूँगा, जिस प्रकार कि एक चिड़िया को जिसका पैर रस्सी से बँधा हो, खींच कर अपने पास लाया जाता है । उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यदि तुम बाबा के निजी जन न होगे तो तुम्हें उनके प्रति आकर्षण भी न होगा और न ही उनके दर्शन प्राप्त होंगे । काकासाहेब को ये बातें सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने कहा, वे शिरडी जाकर बाबा से प्रार्थना करेंगे कि शारीरिक लँगड़ेपन के बदले उनके चंचल मन को अपंग बनाकर परमानन्द की प्राप्त करा दे ।
कुछ
दिनों
के
पश्चात्
ही
बम्बई
विधान
सभा
(Legislative Assembly) के चुनाव में मत प्राप्त करने के सम्बन्ध में काकासाहेब दीक्षित अहमदनगर गये और सरदार काकासाहेब मिरीकर के यहां ठहरे । श्री. बालासाहेब मिरीकर जो कि कोपरगाँव के मामलतदार तथा काकासाहेब मिरीकर के सुपत्र थे, वे भी इसी समय अश्वप्रदर्शनी देखने के हेतु अहमदनगर पधारे थे । चुनाव का कार्य समाप्त होने के पश्चात काकासाहेब दीक्षित शिरडी जाना चाहते थे । यहाँ पिता और पुत्र दोनों ही घर में विचार कर रहे थे कि काकासाहेब के साथ भेजने के लिये कौन सा व्यक्ति उपयुक्त होगा और दूसरी ओर बाबा अलग ही ढंग से उन्हें अपने पास बुलाने का प्रबन्ध कर रहे थे । शामा के पास एक तार आया कि उनकी सास की हालत अधिक शोचनीय है और उन्हें देखने को वे शीघ्र ही अहमदनगर को आये । बाबा से अनुमति प्राप्त कर शामा ने वहां जाकर अपनी सास को देखा, जिनकी स्थिति में अब पर्याप्त सुधार हो चुका था । प्रदर्शनी को जाते समय नानासाहेब पानसे तथा अप्पासाहेब दीक्षित से भेंट करने तथा उन्हें अपने साथ शिरडी ले जाने को कहा । उन्होंने शामा के आगमन की सूचना काकासाहेब दीक्षित और मिरीकर को भी दे दी । सन्ध्या समय शामा मिरीकर के घर आये । मिरीकर ने शामा का काकासाहेब दीक्षित से परिचय कर दिया और फिर ऐसा निश्चित हुआ कि काकासाहेब दीक्षित उनके साथ रात 10 बजे वाली गाड़ी से कोपरगाँव को रवाना हो जाये । इस निश्चय के बाद ही एक विचित्र घटना घटी । बालासाहेब मिरीकर ने बाबा के एक बड़े चित्र पर से परदा हटाकर काकासाहेब दीक्षित को उनके दर्शन कराये तो उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जिनके दर्शनार्थ मैं शिरडी जाने वाला हूँ, वे ही इस चित्र के रुप में मेरे स्वागत हेतु यहाँ विराजमान है । तब अत्यन्त द्रवित होकर वे बाबा की वन्दना करने लगे । यह चित्र मेघा का था और काँच लगाने के लिये मिरीकर के पास आया था । दूसरा काँच लगवा कर उसे काकासाहेब दीक्षित तथा शामा के हाथ वापस शिरडी भेजने का प्रबन्ध किया गया । 10 बजे से पहले ही स्टेशन पर पहुँचकर उन्होंने द्घितीय श्रेणी का टिकट ले लिया । जब गाड़ी स्टेशन पर आई तो द्घितीय श्रेणी का डिब्बा खचाखच भरा हुआ था । उसमें बैठने को तिलमात्र भी स्थान न था । भाग्यवश गार्डसाहेब काकासाहेब दीक्षित की पहिचान के निकल आये और उन्होंने इन दोनों को प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बैठा दिया । इस प्रकार सुविधापू4वक यात्रा करते हुए वे कोपरगाँव स्टेशन पर उतरे । स्टेशन पर ही शिरडी को जाने वाले नानासाहेब चाँदोरकर को देखकर उनके हर्ष का पारावार न रहा । शिरडी पहुँचकर उन्होंने मसजिद में जाकर बाबा के दर्शन किये । तब बाबा कहने लगे कि मैं बड़ी देर से तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर राह था । शामा को मैंने ही तुम्हें लाने के लिये भेज दिया था । इसके पश्चात् काकासाहेब ने अनेक वर्ष बाबा की संगति में व्यतीत किये । उन्होंने शिरडी में एक वाड़ा (दीक्षित वाडा) बनवाया, जो उनका प्रायः स्थायी घर हो गया । उन्हें बाबा से जो अनुभव प्राप्त हुए, वे सब स्थानाभाव के कारण यहाँ नहीं दिये जा रहे है । पाठकों से प्रार्थना है कि वे श्री साईलीला पत्रिका के विशेषांक (काकासाहेब दीक्षित) भाग 12 के अंक 6-9 तक देखे । उनके केवल एक दो अनुभव लिखकर हम यह कथा समाप्त करेंगे । बाबा ने उन्हें आश्वासन दिया था कि अनत समय आने पर बाबा उन्हें विमान में ले जायेंगे, जो सत्य निकला । तारीख 5 जुलाई, 1926 को वे हेमाडपंत के साथ रेल से यात्रा कर रहे थे । दोनों में साईबाबा के विषय में बाते हो रही थी । वे श्री साईबाबा के ध्यान में अधिक तल्लीन हो गये, तभी अचानक उनकी गर्दन हेमाडपंत के कन्धे से जा लगी । और उन्होंने बिना किसी कष्ट तथा घबराहट के अपनी अंतिम श्वास छो़ड़ दी ।
श्री. टेंबे स्वामी
--------------
अब
हम
द्वितीय
कथा
पर
आते
है,
जिससे
स्पष्ट
होता
है
कि
सन्त
परस्पर
एक
दूसरे
को
किस
प्रकार
भ्रतृवत्
प्रेम
किया
करते
है
।
एक
बार
श्री
वासुदेवानन्द
सरस्वती,
जो
श्री.
टेंबे
स्वामी
के
नाम
से
प्रसिदृ
है,
ने
गोदावरी
के
तीर
पर
रामहेन्द्री
में
आकर
डेरा
डाला
।
वे
भगवान
दत्तात्रेय
के
कर्मकांडी,
ज्ञानी
तात
योगी
भक्त
थे
।
नाँदेड़
(निजाम
स्टेट)
के
एक
वकील
अपने
मित्रों
के
सहित
उनसे
भेंट
करने
आये
और
वार्तालाप
करते-करते श्री साईबाबा की चर्चा भी निकल पड़ी । बाबा का नाम सुनकर स्वामी जी ने उन्हें करबदृ प्रणाम किया और पुंडलीकराव (वकील) को एक श्रीफल देकर उन्होंने कहा कि तुम जाकर मेरे भ्राता श्री साई को प्रणाम कर कहना कि मुझे न बिसरे तथा सदैव मुझ पर कृपा दृष्टि रखें । उन्होंने यह भी बतलाया कि सामान्यतः एक स्वामी दूसरे को प्रणाम नहीं करता, परन्तु यहाँ विशेष रुप से ऐसा किया गया है । श्री. पुंडलीकराव ने श्रीफल लेकर कहा कि मैं इसे बाबा को दे दूँगा तथा आपका सन्देश भी उचित था । स्वामी ने बाबा को जो भाई शब्द से सम्बोधित किया था, वह बिकुल ही उचित था । उधर स्वामी जी अपनी कर्मकांडी पदृति के अनुसार दिनरात अग्नहोत्र प्रज्वलित रखते थे और इधर बाबा की धूनी दिन रात मसजिद में जलती रहती थी।
एक
मास
के
पश्चात
ही
पुंडलीकराव
अन्य
मित्रों
सहित
श्रीफल
लेकर
शिरडी
को
रवाना
हुये
।
जब
वे
मनमाड
पहुँचे
तो
प्यास
लगने
के
कारम
एक
नाले
पर
पानी
पीने
गये
।
खाली
पेट
पानी
न
पीना
चाहिये,
यह
सोचकर
उन्होंने
कुछ
चिवड़ा
खाने
को
निकाल,
जो
खाने
में
कुछ
अधिक
तीखा-सा प्रतीत हुआ । उसका तीखापन कम करने के लिये किसी ने नारियल फोड़ कर उसमें खोपरा मिला दिया और इस तरह उन लोगों ने चिवड़ा स्वादिष्ट बनाकर खाया । अभाग्यवश जो नारियल उनके हाथ से फूटा, वह वही था, जो स्वामीजी ने पुंजलीकराव को भेंट में देने को दिया था । शिरडी के समीप पहुँचने पर उन्हें नारियल की स्मृति हो आई । उन्हें यह जानकर बड़ा ही दुख हुआ कि भेंट स्वरुप दिये जाने वाला नारियल ही फोड़ दया गया है । डरते-डरते और काँपते हुए वे शिरडी पहुँचे और वहाँ जाकर उन्होंने बाबा के दर्शन किये । बाबा को तो यहाँ नारियल के सम्बन्ध में स्वामी से बेतार का तार प्राप्त हो चुका था । इसीलिये उन्होंने पहले से ही पुंडलीकराव से प्रश्न किया कि मेरे भाई की भेजी हुई वस्तु लाओ । उन्होंने बाबा के चरण पकड़ कर अपना अपराध स्वीकार करते हुये अपनी चूक के लिये उनसे क्षमा याचना की । वे उसके बदले में दूसरा नारियल देने को तैयार थे, परन्तु बाबा ने यह कहते हुए उसे अस्वीकार कर दिया कि उस नारियल का मूल्य इस नारियल से कई गुना अधिक था और उसकी पूर्ति इस साधारण नारियल से नहीं हो सकती । फिर वे बोले कि अब तुम कुछ चिन्ता न करो । मेरी ही इच्छा से वह नारियल तुम्हें दिया गया तथा मार्ग में फोड़ा गया है । तुम स्वयं में कर्तापन की भावना क्यों लाते हो । कोई भी श्रेष्ठ या कनिष्ठ कर्म करते समय अपने को कर्ता न जानकर अभिमान तता अहंकार से परे होकर ही कार्य करो, तभी तुम्हारी द्रुत गति से प्रगति होगी । कितना सुन्दर उनका यह आध्यात्मिक उपदेश था ।
बालाराम धुरन्धर
-------------------
सान्ताक्रूज,
बम्बई
के
श्री.
बालाराम
धुरन्धर
प्रभु
जाति
के
एक
सज्जन
थे
।
वे
बम्बई
के
उच्च
न्यायालय
में
एडवोकेट
थे
तथा
किसी
समय
शासकीय
विधि
विघालय
(Govt. Law School) और बम्बई के प्राचार्य (Principal) भी थे । उनका सम्पूर्ण कुटुम्ब सात्विक तथा धार्मिक था । श्री बालाराम ने अपनी जाति की योग्य सेवा की और इस सम्बन्ध में एक पुस्तक भी प्रकाशित कराई । इसके पश्चात् उनका ध्यान आध्यात्मिक और धार्मिक विषयों पर गया । उन्होंने ध्यानपूर्वक गीता, उसकी टीका ज्ञानेश्वरी तथा अन्य दार्शनिक ग्रन्थों पर अध्ययन किया । वे पंढरपुर के भगवान विठोबा के परम भक्त ते । सन् 1912 में उन्हें श्री साईबाबा के दर्शनों का लाभ हुआ । छः मास पूर्व उनके भाई बाबुलजी और वामनराव ने शिरडी आकर बाबा के दर्शन किये थे और उन्होंने घर लौटकर अपने मधुर अनुभव भी श्री. बालाराम व परिवार के अन्य लोगों को सुनाये । तब सब लोगों ने शिरडी जाकर बाबा के दर्शन करने का निश्चय किया । यहाँ शिरडी में उनके पहुँचने के पूर्व ही बाबा ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि आज मेरे बहुत से दरबारीगण आ रहे है । अन्य लोगों द्घारा बाबा के उपरोक्त वचन सुनकर धुरन्धर परिवार को महान् आश्चर्य हुआ । उन्होंने अपनी यात्रा के सम्बन्ध में किसी को भी इसकी पहले से सूचना न दी थी । सभी ने आकर उन्हें प्रणाम किया और बैठकर वार्तालाप करने लगे । बाबा ने अन्य लोगों को बतलाया कि ये मेरे दरबारीगण है, जिनके सम्बन्ध में मैंने तुमसे पहले कहा था । फिर धुरन्धर भ्राताओं से बोले कि मेरा और तुम्हारा परिचय 60 जन्म पुराना है । सभी नम्र और सभ्य थे, इसलिये वे सब हाथ जोड़े हुए बैठे-बैठे बाबा की ओर निहारते रहे । उनमें सब प्रकार के सात्विक भाव जैसे अश्रुपात, रोमांच तथा कण्ठावरोध आदि जागृत होने लगे और सबको बड़ी प्रसननता हुई । इसके पश्चात वे सब अपने निवासस्थान पर भोजन को गये और भोजन तथा थोड़ा विश्राम लेकर पुनः मसजिद में आकर बाबा के पांव दबाने लगे । इस समय बाबा चिलम पी रहे थे । उन्होंने बालाराम को भी चिलम देकर एक फूँक लगाने का आग्रह किया । यघपि अभी तक उन्होंने कभी धूम्रपान नहीं किया था, फिर भी चिलम हाथ में लेकर बड़ी कठिनाई से उन्होंने एक फूँक लगाई और आदरपूर्वक बाबा को लौटा दी । बालाराम के लिये तो यह अनमोल घडी थी । वे 6 वर्षों से श्वास-रोग से पीड़ित थे, पर चिलम पीते ही वे रोगमुक्त हो गये । उन्हें फिर कभी यह कष्ट न हुआ । 6 वर्षों के पश्चात उन्हें एक दिन पुनः श्वास रोग का दौरा पड़ा । यह वही महापुण्यशाली दिन था, जब कि बाबा ने महासमाधि ली । वे गुरुवार के दिन शिरडी आये थे । भाग्यवश उसी रात्रि को उन्हें चावड़ी उत्सव देखने का अवसर मिल गया । आरती के समय बालाराम को चावड़ी में बाबा का मुखमंडल भगवान पंडुरंग सरीखा दिखाई पड़ा । दूसरे दिन कांकड़ आरती के समय उन्हें बाबा के मुखमंडल की प्रभा अपने परम इष्ट भगवान पांडुरंग के सदृश ही पुनः दिखाई दी ।
श्री
बालाराम
धुरन्धर
ने
मराठी
में
महाराष्ट्र
के
महान
सन्त
तुकाराम
का
जीवन
चरित्र
लिखा
है,
परन्तु
खेद
है
कि
पुस्तक
प्रकाशित
होने
तक
वे
जीवित
न
रह
सके
।
उनके
बन्धुओं
ने
इस
पुस्तक
को
सन्
1928 में
प्रकाशित
कराया
।
इस
पुस्तक
के
प्रारम्भ
में
पृष्ठ
6 पर
उनकी
जीवनी
से
सम्बन्धित
एक
परिक्षेपक
में
उनकी
शिरडी
यात्रा
का
पूरा
वर्णन
है
।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
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